फ़रवरी 07, 2012

इस समाचार का समय सन्देश यही लगा कि अपने आलू से चिप्स और दूसरी ऐसी चीजे बना लेना ज्यादा सरल है बजाय आलू को फेकने के. यह क्रन्तिकारी उदाहरण का जब तक स्थापित नहीं किया जायेगा तब तक शायद हमारे देश के किसानों की समस्या हल नही होने वाली.रही बात "कुछ करोड़" रूपयों के इंतजाम की; तो आगे बढ़ कर कुछ नया करने,सफल होने के लिए इतना "पेन" उठाना ही पड़ेगा.


आज शाम टी वी पर समाचार देख रहा था .टी वी पर समाचार देखने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है कि जब तक जरूरी न हो तब तक आप चैनल बदलते रहे .नयेपन और ब्रेकिग न्यूज़ की आपाधापी में केवल चैनल ही नहीं ,लगभग हर खाशोआम दर्शक भी इसी  आपाधापी में लगा रहता है.इसी तरह की प्रक्रिया से गुजरते हुए मैं एक चैनल पर पहुचा तो वहा खबर चल रही थी कि आलू किसान आलू फेकने की जगह उससे फायदा कैसे ले सकते है .मैं रूक गया कि 'आत्महत्या' करने के लिए मजबूर होने वाले किसानों को जीने का रास्ता बताने वाली खबर तो देखी ही जानी चाहिए.
         पूरी खबर देख लेने के बाद मैं चिंता में पड़ गया.खबर की शुरुआत में समाचार वाचक ने बड़े संवेदनशील अंदाज में बताना शुरू किया कि आलू किसान अपनी फसल सड़कों पर फेकने के लिए मजबूर हो जाता है. वह बताता है कि इस साल उत्पादन ज्यादा होने के कारण कई जगहों पर आलू किसान को १ से १.५ रूपये किलों के दम पर अपना उत्पाद बेचना पड़ा.इस दाम पर तो उसकी लागत के आधे हिस्से की भी भरपाई नहीं हो पाती है.टी वी पर उस समय किसानो का आलू नष्ट करते हुए फुटेज भी मार्क अंदाज में चल रहा था. कुछ ही देर में खबर का मिजाज़ खुशनुमा हो जाता है. समाचार वाचक पंजाब के एक ऐसे किसान की कहानी दर्शकों के सामने परोसता है.जो उसके कहे अनुसार आलू किसानों के लिए एक उपयोगी उदाहरण हो सकता है.किसान इस सफल किसान के रास्ते पर चले तो उन्हें अपना आलू सड़क पर फेकने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा.वाचक हमें यह भी बताता है कि इस किसान को उसकी इस उपलब्धि के लिए एक पुरूस्कार समारोह में सम्मानित भी किया गया है. यह समारोह एक बड़ी कंपनी ने आयोजित किया था जो बड़ी गाड़िया बनाने में सफल होने के बाद असीम  सम्भावना वाले 'कृषि क्षेत्र' में काम करने के लिय अपने कदम बढाये है .     
             खबर का सफल 'किसान'मेरी पहचान वाला किसान नहीं था.शायद आप की पहचान का भी न हो. वह ऐसा किसान था जो अपने आलू को फेकने से बचाने के लिए आधुनिक तकनीक और 'बड़े बाज़ार' को इस्तेमाल करने लगा था.इस 'किसान' ने आलू फेकने की जगह उससे चिप्स और पाउडर बनाने का निर्णय करके अपने साहस का परिचय देता है. इसके लिए वह ज्यादा नहीं 'कुछ करोड़' रूपयों की मशीन हालैंड से मँगवाता है.जैसा की समाचार वाचक ने बताया चिप्स और आलू पाउडर के "बड़े बाज़ार' का ध्यान रख कर किया गया यह काम उस किसान को सफलता के शिखर की ओर लगातार धकेल रहा है.आप समाचार वाचक से यह सामान्य सा प्रश्न नहीं कर सकते कि आलू का बाज़ार बड़ा है या 'चिप्स और आलू पाउडर' का ? या ये प्रश्न कि इसी देश में आलू का दाम खेत में १ या १.५ रूपये रहने के बाद भी बाज़ार में कभी भी ५-६ रूपये से कम नहीं हुआ. निश्चय ही 'चिप्स और पाउडर का ही क्योकिं जिन लोगो के पास खरीदने की ताकत है,उनको ये चीजे पसंद आती ही है.उस किसान के पास आपने "आलू' की इस  बिक्री के बाईपास रस्ते के लिए तकनीक का इस्तेमाल तो आता ही है.वह इन चिप्सों का विज्ञापन सहारा भी ले सकता है.आधुनिक और सफल "किसानपने' के लिए समय के साथ कदम से कदम मिला कर चलना ही चाहिए. 
            इस समाचार का समय सन्देश यही लगा कि अपने आलू  से चिप्स और दूसरी ऐसी चीजे बना लेना ज्यादा सरल है  बजाय आलू को फेकने के. यह क्रन्तिकारी उदाहरण का जब तक स्थापित नहीं किया जायेगा तब तक शायद हमारे देश के किसानों की समस्या हल नही होने वाली.रही बात "कुछ करोड़" रूपयों के इंतजाम की; तो आगे बढ़ कर कुछ नया करने,सफल होने के लिए इतना "पेन" उठाना ही पड़ेगा.पी साईनाथ जैसे पत्रकारों को भी इस तरह की ख़बरों की ओर ध्यान देना चाहिए जिससे हमारे देश के किसानों को प्रेरणा मिले और वे भी कुछ नयी मिसाल पेश कर सके. किसान और पूंजीपति के बीच अंतर न कर पाने की क्षमता की कमी कहे या अपनी नौकरी की मजबूरी जो भी कारण हो .ऐसी स्थिति में खबरों के इस तरह की प्रस्तुति से भी हमारा आपका मिजाज़ भले ही खिन्न होता हो.कुछ लोग तो ऐसे है ही जिनके हित साधते ही है. और ये लोग ताकतवर भी है.